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बीन्स की खेती (Beans Farming) से सम्बंधित जानकारी
बीन्स के पौधे लताओं के रूप में फैलते है, इसके पौधों पर निकलने वाली फलियां सेम या बीन्स कहलाती है | जिन्हे सब्जी के रूप में इस्तेमाल में लाया जाता है | इसकी फलियां भिन्न-भिन्न आकार की होती है, जो देखने में पीली, सफ़ेद और हरे रंग की पायी जाती है | बीन्स की मुलायम फलियां सब्जी के रूप में अधिक इस्तेमाल की जाती है | इसमें सहजपाच्य प्रोटीन, विटामिन्स और कार्बोहाइड्रेटस की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है, जिससे यह कुपोषण को दूर करने में अधिक लाभकारी है |
इसके अलावा किसान भाई बीन्स के पौधों से हरी खाद भी बनांते है, तथा पत्तियों को पशुओ के चारे के लिए उपयोग में लाते है | भारत के सभी राज्यों में इसकी खेती आसानी से की जाती है | यदि आप भी बीन्स की खेती करने का मन बना रहे है, तो इस लेख में आपको बीन्स की खेती कैसे करे के बारे में जानकारी दी जा रही है |
बीन्स की खेती कैसे करे (Beans Farming in Hindi)
यहाँ आपको बीन्स की खेती हेतु उपयुक्त मिट्टी, जलवायु तथा तापमान के विषय में समझाया गया है (Beans Cultivation Suitable Soil, Climate and Temperature), जिसकी इस प्रकार है:-
- बीन्स की अच्छी पैदावार के लिए काली चिकनी मिट्टी की आवश्यकता होती है |
- बीन्सकी खेती के लिए जल निकासी वाली जमीन अच्छी मानी जाती है |
- इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 5.5से6.5 के मध्य होना जरूरी होता है |
- बीन्स का पौधा समशीतोष्ण जलवायु वाला होता है |
- ठंड में इसके पौधे अच्छे से विकास करते है, तथा गिरने वाले पाले को भी आसानी से सहन कर लेते है |
- अधिक गर्म जलवायु इसके पौधों के लिए उपयुक्त नहीं होती है, और न ही इन्हे अधिक वर्षा की आवश्यकता होती है |
- इसकी फसल को 15 से 25 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है, तथा बीज अंकुरण के लिए 20 डिग्री तापमान की जरूरत होती है |
- बीन्स के पौधों को विकास करने के लिए 30 डिग्री तापमान उचित होता है |
- बीन्स एक दलहनी फसल है, जिस वजह से यह भूमि में वायुमंडलीय नाईट्रोजन का संचन करती है, जिससे भूमि की उवर्रक क्षमता बढ़ती है, और बाद की फसल को नाइट्रोजन का लाग प्राप्त होता है |
सेम की उन्नत किस्में (Beans Improved Varieties)
वर्तमान समय में सेम की कई उन्नत क़िस्मो को अधिक पैदावार देने के लिए उगाया जा रहा है, जिन्हे अलग-अलग प्रजातियों के हिसाब से बांटा गया है | बीन्स की प्रजातियां इस प्रकार है :-
प्रजातियाँ | उन्नत क़िस्म | उत्पादन समय | उत्पादन |
झाड़ीदार किस्में | स्वर्ण प्रिया | 50 दिनमें | 11 टनप्रति हेक्टेयर |
अर्का संपूर्णा | 50 से 60 दिनमें | 8 से 10 टनप्रति हेक्टेयर | |
आर्क समृद्धि | 60 से 65 दिन में | 19 टनप्रति हेक्टेयर | |
अर्का जय | 50 दिन में | 12 टन प्रति हेक्टेयर | |
पन्त अनुपमा | 60 दिन में | 9 से 10 टनप्रति हेक्टेयर | |
पूसा पार्वती | 50 दिन में | 18 से 20 टनप्रति हेक्टेयर | |
एच.ए.एफ.बी. – 2 | 55 से 60 दिन में | 15 से 20 टनप्रति हेक्टेयर | |
बेलदार किस्में | स्वर्ण लता | 60 दिन बाद | 12 से 14 टनप्रति हेक्टेयर |
अर्का कृष्णा | 60 से 65 दिन में | 30 टनप्रति हेक्टेयर | |
अर्का प्रसिद्धि | 60 दिन में | 30 टनप्रति हेक्टेयर | |
पूसा हिमलता | 50 दिन में | 13 से 16 टनप्रति हेक्टेयर | |
सी. एच. पी. बी. – 1820 | 50 दिन पश्चात् | 18 से 20 टनप्रति हेक्टेयर |
इसके अलावा भी बीन्स की कई उन्नत किस्में है, जिन्हे अलग-अलग प्रदेशो में अधिक पैदावार देने के लिए उगाया जाता है | उन्नत किस्में इस प्रकार है:- दीपाली, प्रीमियर, वाईसीडी 1, कंकन बुशन, अर्का सुमन, फुले गौरी और दसारा आदि |
बीन्स के खेत की तैयारी और उवर्रक (Bean Field Preparation and Fertilizer)
बीन्स की खेती करने से पहले खेत में मौजूद पुरानी फसल के अवशेषो को पूरी तरह से नष्ट कर दे | इसके लिए खेत की मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर दी जाती है | इसके बाद खेत में प्राकृतिक खाद के रूप में 10 से 12 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को डालकर फिर से जुताई कर दी जाती है, इससे खेत की मिट्टी में गोबर की खाद ठीक तरह से मिल जाती है | खेत में खाद को मिलाने के बाद उसमे पानी लगाकर कर पलेव कर दिया जाता है |
पलेव के बाद खेत को कुछ समय के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाता है | इसके बाद खेत की नम भूमि में रोटावेटर लगाकर जुताई कर दी जाती है, जिससे खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है | भुरभुरी मिट्टी में पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है, इससे भूमि में जलभराव नहीं होता है |
किसान भाई रासायनिक खाद के रूप में प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 60 KG डी.ए.पी की मात्रा का छिड़काव खेत की आखरी जुताई के समय करे | इसके अलावा 25 KG यूरिया की मात्रा का छिड़काव पौध सिंचाई के साथ करना होता है | इससे उत्पादन अधिक मात्रा में प्राप्त होता है |
बीन्स के बीजो की रोपाई का सही समय और तरीका (Beans Seeds Sowing Right time and Method)
बीन्स के बीजो की रोपाई बीज के रूप में की जाती है | इसके लिए एक हेक्टेयर के खेत में तक़रीबन 80 से 100 KG बीजो की आवश्यकता होती है | बीज रोपाई हाथ या ड्रिल दोनों ही तरीको से की जा सकती है, किन्तु बीज रोपाई से पूर्व उन्हें कार्बेन्डाजिम, थीरम या गोमूत्र से उपचारित कर ले | बीज रोपाई के लिए खेत में पंक्तियों को तैयार कर लिया जाता है, तथा प्रत्येक पंक्ति के मध्य एक से डेढ़ फ़ीट की दूरी रखी जाती है | इन पंक्तियों में बीजो की रोपाई 10 से 15 CM की दूरी पर करे | बारिश के मौसम में बीजो की रोपाई खेत में मेड़ बनाकर की जानी चाहिए |
बीन्स के बीजो की रोपाई अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग समय पर करते है | इसमें उत्तर पूर्वी राज्यों में बीजो की रोपाई अक्टूबर से नवम्बर माह के मध्य तक की जानी चाहिए | जबकि उत्तर पश्चिम राज्यों में बीजो को सितम्बर माह के मध्य तक लगाया जाता है | इसके अलावा पहाड़ी इलाको में बीजो की रोपाई जून और जुलाई के महीने में की जाती है |
बीन्स के पौधों की सिंचाई (Bean Plants Irrigation)
बीन्स के पौधों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है | यदि बीजो की रोपाई सूखी भूमि में की गयी है, तो इसकी प्रारंभिक सिंचाई तुरंत बाद कर देनी चाहिए | इसके बाद खेत में बीज अंकुरण के समय तक नमी बनाये रखने के लिए 3 से 4 दिन के अंतराल में पानी देते रहना चाहिए | इसके अलावा बीन्स के पौधों को 20 से 25 दिन के अंतराल में पानी देना होता है |
बीन्स के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण (Bean Plants Weed Control)
बीन्स के पौधों को अधिक निराई – गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है | इसकी पहली गुड़ाई बीज रोपाई के 20 दिन के बाद की जाती है, तथा बाद की गुड़ाई को 15 से 20 दिन के अंतराल में करना चाहिए | यदि आप खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक विधि का इस्तेमाल करना चाहते है, तो उसके लिए आपको बीज रोपाई के तत्पश्चात पेन्डीमेथलीन की उचित मात्रा का छिड़काव करना चाहिए |
बीन्स के पौधों में लगने वाले रोग एवं उनकी रोकथाम (Bean Plants Diseases and Prevention)
तना गलन
बीन्स के पौधों पर तना गलन रोग अक्सर खेत में जल भराव और वायरस की वजह से देखने को मिलता है | इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों पर पीले, भूरे रंग के धब्बे बनने लगते है, तथा कुछ समय पश्चात् ही धब्बो का आकार भी बढ़ने लगता है | पौधों की जड़ों पर कार्बेन्डाजिम की उचित मात्रा का छिड़काव कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है |
मोजेक
इस क़िस्म का रोग पौधों की पत्तियों पर आक्रमण करता है | मोजेक रोग से प्रभावित पौधे की पत्तिया सिकुड़ जाती है, और पत्तियों पर पीले और हरे रंग के धब्बे दिखाई देने लगते है | जिससे पौधा वृद्धि करना बंद कर देता है | इस रोग की रोकथाम के लिए रोग ग्रसित पौधे को जड़ से उखाड़ कर फेक देना चाहिए, तथा पौधों पर रोगोर की उचित मात्रा का छिड़काव करे |
एन्थ्रेक्नोज
इस क़िस्म का रोग पौधों की फलियों और पत्तियों पर आक्रमण करता है | इस रोग से प्रभावित पत्तियों और फलियों पर का
ले पीले रंग के धब्बे पड़ने लगते है, तथा रोग का प्रभाव अधिक बढ़ जाने पर पत्ती सिकुड़कर सूखने जाती है | बीन्स के पौधों को इस रोग से बचाने के लिए डाइथेन एम-45 की उचित मात्रा का छिड़काव करे |
फली छेदक
इस तरह का रोग बीन्स के पौधों पर कीट के रूप में आक्रमण करता है | इस रोग का लार्वा फलियों के अंदर घुसकर उसके कच्चे बीजो को खा जाता है | जिससे फलियां ख़राब हो जाती है | इस रोग से बचाव के लिए नीम के काढ़े या नुवाक्रान की उचित मात्रा का छिड़काव पौधों पर करे |
बीन्स के फलियों की तुड़ाई, पैदावार और लाभ (Bean pods Harvest, Yield and Benefits)
बीन्स के पौधे बीज रोपाई के 50 से 60 दिन पश्चात् तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है | फलियों की तुड़ाई के पश्चात् उन्हें पानी से साफ कर एकत्रित कर लिया जाता है | जिसके बाद उन्हें बाजार में बेचने के लिए भेज दिया जाता है | एक हेक्टेयर के खेत से तक़रीबन 15 से 20 टन का उत्पादन प्राप्त हो जाता है | बीन्स का बाज़ारी भाव 25 से 30 रूपए प्रति किलो होता है | जिससे किसान भाई इसकी एक बार की फसल से ढाई से तीन लाख तक कमाई कर अच्छा लाभ कमा सकते है |