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चने की खेती (Gram Farming) से सम्बंधित जानकारी
चना एक दलहनी फसल है, जिसकी खेती पूरे भारत में की जाती है | पूरी दुनिया का 75 प्रतिशत चना भारत में ही उगाया जाता है | चना मानव शरीर के लिए बहुत ही लाभदायक होता है, इसमें 21 प्रतिशत प्रोटीन तथा 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पाई जाती है | सुबह के समय भीगे हुए चने का सेवन करने से पूरे दिन शरीर में फूर्ति बनी रहती है | इसके अलावा चने से कई तरह की चीजों को बनाया जाता है | कच्चे के रूप में चने का सेवन करने के लिए इसकी फलियों को भूनकर खाते है |
इसकी कच्ची पत्तियों से भी सब्जी,चटनी और रोटी को बनाकर खाया जा सकता है | यदि आप भी चने की खेती करना चाहते है, तो इस लेख में आपको चने की खेती कैसे करे (Gram Farming in Hindi) तथा चना बोने का सही समयकब होता है, इस जानकारी से भी अवगत कराया गया है|
चने की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान (Gram Cultivation Suitable Soil, Climate and Temperature)
चने की खेती किसी भी उपजाऊ और उचित जल निकासी वाली मिट्टी में की जा सकती है चने की अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए दोमट मिट्टी को उपयुक्त माना जाता है | इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7.5 के मध्य होना चाहिए | चने का पौधा ठंडी जलवायु वाला होता है, इसकी खेती में पानी की पूर्ति के लिए बारिश के मौसम में पौधों की रोपाई की जाती है, तथा अधिक वर्षा भी पौधों के लिए हानिकारक होती है | इसके पौधे ठंडी जलवायु में अच्छे से वृद्धि करते है, किन्तु सर्दियों के मौसम में गिरने वाला पाला पौधों को हानि पहुँचाता है|
अधिक गर्मी के मौसम में इसके पौधों पर कई तरह के रोग देखने को मिल जाते है | सामान्य तापमान में चने की खेती आसानी से की जा सकती है | इसके पौधों 20 डिग्री तापमान में अच्छे अंकुरित होते है | चने का पौधा अधिकतम 30 डिग्री तथा न्यूनतम 10 डिग्री तापमान को ही सहन कर सकता है, इससे कम तापमान पैदावार को प्रभावित करता है|
चने की उन्नत किस्में (Gram Improved Varieties)
चने की अधिक पैदावार प्राप्त करने के लिए बाज़ारो में कई तरह की उन्नत किस्में मिल जाती है,यह सभी किस्में दो प्रजातियों में विभाजित की गई है, जिनमे देशी और काबुली प्रजाति शामिल है |
देशी क़िस्म के चने (Gram Native Varieties)
इस प्रजाति में दानो का आकार छोटा पाया जाता है | इस क़िस्म के चनो को दाल और बेसन बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है | चने की देशी प्रजाति भारत में सबसे अधिक उगाई जाती है |
जे. जी. 11
इस क़िस्म के पौधे को तैयार होने में 110 दिन का समय लग जाता है, तथा इसमें निकलने वाले दाने हल्के पीले होते है | चने की इस क़िस्म को सिंचित और असिंचित दोनों ही जगहों पर उगाने के लिए तैयार किया गया है | जिसमे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 18 क्विंटल की पैदावार प्राप्त हो जाती है |
इंदिरा चना
इस क़िस्म के पौधों पर फफूंद जनित कटवा और उखटा रोग नहीं देखने को मिलता है | इसके पौधे सामान्य ऊंचाई वाले होते है, जिन्हे कम सिंचाई की आवश्यकता होती है | चने की यह क़िस्म पौध रोपाई के 120 दिन बाद पैदावार देने के लिए तैयार हो जाती है | जिससे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 20 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त हो जाता है |
हिम
चने की यह क़िस्म पौध रोपाई के 140 दिन बाद उत्पादन देने के लिए तैयार हो जाते है, इसके पौधे अधिक लम्बे होते है, जिसमे निकलने वाले दानो हल्के हरे होते है | जिसका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 17 क्विंटल होता है|
वैभव
इस क़िस्म के पौधों को तैयार होने में 110 से 115 दिन समय लग जाता है | जिसमे निकलने वाले दानो का आकार सामान्य से थोड़ा बड़ा और रंग में कत्थई होता है | इसके पौधे अधिक तापमान नहीं सहन कर पाते है, तथा इसके पौधों में उखटा रोग नहीं लगता है| यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 15 क्विंटल की पैदावार दे देती है |
काबुली क़िस्म का चना
काबुली प्रजाति के चनो को सिंचित जगहों पर उगाने के लिए तैयार किया गया है | इस क़िस्म के चनो की दाल अधिक इस्तेमाल में लायी जाती है, तथा इसकी खेती भी व्यापारिक चीजों को तैयार करने के लिए की जाती है|
जे जी के – 2
चने की इस क़िस्म को कम समय में उगाने के लिए तैयार किया गया है | इसके पौधे बीज रोपाई के 90 से 100 दिन बाद पककर तैयार हो जाते है | जिसमे निकलने वाले दानो का रंग हल्का पीला सफ़ेद पाया जाता है | इसके पौधे उखटा रोग रहित होते है | यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 20 क्विंटल की पैदावार दे देती है |
मेक्सीकन बोल्ड
चने की यह क़िस्म भी कम समय में पैदावार देने के लिए उगाई जाती है, इसका पौधा 90 से 95 दिनों में उत्पादन देना आरम्भ कर देता है, तथा इसमें निकलने वाले दाने सफ़ेद, चमकदार और आकर्षक पाए जाते है | यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 25 क्विंटल की पैदावार दे देती है|
चने के खेत की तैयारी और उवर्रक (Gram Field Preparation and Fertilizer)
चने के बीजो की रोपाई से पहले उसके खेत को अच्छी तरह से तैयार कर लिया जाता है, इसके लिए सबसे पहले खेत की अच्छी तरह से गहरी जुताई कर दी जाती है | जुताई के बाद खेत को कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दे | इससे खेत की मिट्टी में अच्छी तरह से धूप लग जाती है, और मिट्टी में मोजूद हानिकारक तत्व पूरी तरह से नष्ट हो जाते है | खेत की पहली जुताई के बाद उसमे 10 से 12 गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना होता है | खाद को खेत में डालने के बाद जुताई कर मिट्टी में खाद को अच्छी तरह से मिला दिया जाता है | इसके बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है, पलेव के बाद जब खेत की मिट्टी सूखी दिखाई देने लगे उस समय कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है|
जुताई के बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर दिया जाता है, इससे खेत में जलभराव नहीं होता है | चने की जड़ो में गांठे भूमि में होती है, जो भूमि से ही नाइट्रोजन की पूर्ती करती है | जिस वजह से इसके पौधों को रासायनिक उवर्रक की अधिक आवश्यकता नहीं होती है, और जैविक उवर्रक को सबसे उपयुक्त माना जाता है| रासायनिक खाद के रूप में केवल एक बोरा डी.ए.पी. की मात्रा को खेत की आखरी जुताई के समय देना होता है, तथा एक एकड़ के खेत में 25 किलो जिप्सम का छिड़काव करे |
चना बोने का सही समय और तरीका (Gram Seeds Sowing Right time and Method)
चने के बीजो की रोपाई बीज के रूप में की जाती है | एक एकड़ के खेत में देशी क़िस्म के बीजो की रोपाई के लिए 80 से 100 KG बीजो की आवश्यकता होती है, तथा काबुली क़िस्म के लिए 60 से 80 KG बीज की आवश्यकता होती है | इन बीजो की रोपाई से पहले उन्हें गोमूत्र, थिरम, कार्बेन्डाजिम या मेन्कोजेब की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है | इससे बीज में रोग लगने का खतरा कम हो जाता है, और बीजो का अंकुरण भी अच्छे से होता है |
इसके बीजो की रोपाई रबी की फसल के साथ की जाती है, सिंचित और असिंचित जगहों पर बीजो की बुवाई का समय अलग-अलग होता है | सिंचित जगहों पर बीजो की रोपाई के लिए अक्टूबर से दिसंबर के मध्य का महीना सबसे उपयुक्त होता है, तथा असिंचित जगहों पर बीजो की रोपाई सितम्बर से अक्टूबर माह के मध्य की जाती है | बीजो की रोपाई मशीन द्वारा की जाती है, जिसके लिए खेत में पंक्तियों को तैयार कर लिया जाता है, तथा प्रत्येक पंक्ति के मध्य एक से डेढ़ फ़ीट की दूरी रखी जाती है| पंक्तियों में इन बीजो को 20 से 25 CM की दूरी पर 5 से 7 CM की गहराई में लगाना होता है|
चने के पौधों की सिंचाई (Gram Plants Irrigation)
चने की 70 से 75 प्रतिशत बुवाई असिंचित जगहों पर की जाती है | जिस वजह से इसके पौधों को अधिक पानी की आवश्यकता नहीं होती है | जबकि सिंचित जगहों पर पौधों को पानी देना होता है | इसके पौधों को अधिकतम तीन से चार सिंचाई की जरूरत होती है, इसकी पहली सिंचाई बीज रोपाई के 30 से 35 दिन बाद की जाती है, तथा उसके बाद की सिंचाई को 25 से 30 दिन के अंतराल में करना होता है |
चने के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण (Gram Plants Weed Control)
चने के पौधों की जड़े भूमि में होती है, और भूमि से ही पोषक तत्वों को ग्रहण करती है, ऐसे में यदि खेत में खरपतवार निकल आते है, तो पौधे पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्वों को ग्रहण नहीं कर पाते है | इसलिए खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए प्राकृतिक और रासायनिक दोनों ही विधियों का इस्तेमाल किया जाता है | प्रकृति विधि द्वारा खरपतवार पर नियंत्रण पाने के लिए खेत में दो से तीन गुड़ाई की आवश्यकता होती है, तथा प्रत्येक गुड़ाई 25 दिन के अंतराल में की जाती है | रासायनिक विधि में खरपतवार पर नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन की उचित मात्रा का छिड़काव बीज रोपाई के तुरंत बाद करना होता है|
चने के पौधों में लगने वाले रोग एवं उनकी रोकथाम (Gram Plants Diseases and Prevention)
फली छेदक
इस क़िस्म का रोग चने के पौधों पर फली बनने के दौरान देखने को मिलता है | फली छेदक रोग का कीट चने की फलियों में छेद कर उनके दानो को खा जाता है | यह कीट रोग देखने में हरे रंग का होता है | चने के पौधों को इस रोग से बचाने के लिए स्पाइनोसेड या इन्डोक्साकार्ब की उचित मात्रा का छिड़काव 2 बार किया जाता है|
उखटा रोग
यह उखटा रोग चने के पौधों पर आरम्भ में ही देखने को मिल जाता है | जिसके बाद पौधे की पत्तिया पीले रंग की दिखाई देने लगती है | इस रोग से पौधों को बचाने के लिए बीज रोपाई से पहले उन्हें ट्राइकोडर्मा, कार्बेन्डाजिम या थायरम से उपचारित कर लगाए | इसके अलावा यदि खड़ी फसल पर यह रोग दिखाई दे तोकार्बेन्डाजिम 50 WP को रेत के साथ पौधों पर छिड़क दे |
झुलसा रोग
इस क़िस्म का रोग चने के पौधों पर फफूंद की वजह से लगता है | इस रोग से प्रभावित चने के पौधों की पत्तियों पर सफ़ेद रंग का पदार्थ दिखाई देने लगता है | जिस वजह से इसके पौधे सूर्य से पोषक तत्वों को ग्रहण नहीं कर पाते है, और पौधा कुछ समय पश्चात् ही पीले रंग का पड़ने लगता है | इस रोग से अधिक प्रभावित होने पर चने का पौधा पूरी तरह से नष्ट होकर गिर जाता है | इस रोग से बचाव के लिए गंधक या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिड़काव चने के पौधों पर 10 दिन में दो बार करना होता है |
रस्ट
यह रोग चने के पौधों पर फसल पकने के दौरान देखने को मिलता है | इस रोग से प्रभावित होने पर पौधों की पत्तियां और शाखाए काले रंग की चित्तियो से ग्रषित हो जाती है | इस रोग से बचाव के लिए चने के पौधों पर गंधक या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिड़काव 10 दिन में दो बार करना होता है|
चने के पौधों की कटाई, पैदावार और लाभ (Gram Plants Harvesting, Yield and Benefits)
चने की उन्नत किस्मे बीज रोपाई के 100 से 120 दिन बाद कटने के लिए तैयार हो जाती है| जब इसके पौधों पर लगी पत्तियों का रंग हल्का पीला दिखाई दे और दाने भी कठोर हो जाये उस दौरान इनकी कटाई कर ले| इसके पौधों की कटाई भूमि के पास से की जाती है| कटाई के बाद पौधों को कुछ समय के लिए ऐसे ही खेत में सूखने के लिए छोड़ दे | पौधे सूखने के बाद इसके दानो को थ्रेसर की सहायता से निकाल लिया जाता है | एक हेक्टेयर के खेत से 15 से 20 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त हो जाता है | चने का बाज़ारी भाव 4 हजार से 8 हज़ार रूपए प्रति क्विंटल होता है, जिससे किसान भाई चने की खेती कर एक हेक्टेयर के खेत से 60 हजार से 1 लाख तक की कमाई कर सकते है|